1947 में आजादी मिलने और 1950 में अपना संविधान लागू होने के बाद भी देश में कुछ लोग अपने अधिकारों से वंचित रहे। ऐसा नहीं था कि इन्हें इनके अधिकारों से वंचित रखा गया था बल्कि ये समाजिक भेदभाव के शिकार थे। 1955 में ऐसे लोगों के लिए प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट आया। बावजूद इसके समाज में रह रहे कुछ वर्गों के लोगों के साथ भेदभाव जारी रहा। यह वर्ग कमजोर, अति पिछड़ा, दलित जिनके साथ छुआछूत, अत्याचार और भेदभाव का सिलसिला लगातार जारी रहा। भारतीय संविधान में इन्हें समानता का मौलिक अधिकार बिल्कुल मिला था पर यह वर्ग लगातार भेदभाव का शिकार रहा। कई सरकारों ने इन्हें इनके अधिकार देने की पहल तो जरूर की पर वह लक्ष्य तक पहुंच नहीं पा रहा था। समाज में इनकी हालत में सुधार ना के बराबर दिख रहा था। कई पूर्व की सरकारों ने इस बात को भी माना कि इस वर्ग को ताकतवर लोग लगातार डराने की कोशिश करते हैं। उनकी आर्थिक स्थिति भी जस की तस बनी रही और सामाजिक स्थिति तमाम मानकों पर बेहद ही खराब थी। इसीलिए एससी एसटी एक्ट लाने की जरूरत पड़ी।
क्या है एससी एसटी एक्ट
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों की सुरक्षा के लिए एससी एसटी एक्ट 1 सितम्बर 1989 में संसद द्वारा पारित किया था। एससी एसटी एक्ट को पूरे देश में 30 जनवरी 1990 को लागू कर दिया गया। इसका उद्देश्य अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग से ताल्लुक रखने वाले लोगों को सार्वजनिक सुरक्षा मुहैया कराना है तथा इनके खिलाफ समाज में फैले भेदभाव और अत्याचार को रोकना है। इस एक्ट का मकसद एससी-एसटी वर्ग के लोगों को अन्य वर्गों की ही तरह समान अधिकार दिलाना भी है। अनुसूचित जाति जनजाति के लोगों के साथ होने वाले अपराधों की सूरत में इस एक्ट में सुनवाई का विशेष प्रावधान किया गया है। इसके तहत इस समुदाय के लोगों के साथ भेदभाव या अन्याय करने वाले लोगों को कठिन सजा का भी प्रावधान है।
एससी-एसटी एक्ट 1989 के मुख्य प्रावधान
- जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करने पर शीघ्र ही मामला दर्ज हो जाता है
- इनके खिलाफ होने वाले मामलों की जांच का अधिकार इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारी के पास रहता है
- केस दर्ज हो जाने की स्थिति में तुरंत गिरफ्तारी का प्रावधान है
- एससी/एसटी मामलों की सुनवाई सिर्फ स्पेशल कोर्ट में होगी
- सिर्फ हाईकोर्ट से ही इस मामले में जमानत मिल सकती है
- अत्याचार से पीड़ित लोगों को पर्याप्त सुविधाएं और कानूनी मदद दी जाती है
- पीड़ित वर्ग को आर्थिक और सामाजिक पुनर्वास की व्यवस्था की जाती है
- सुनवाई के दौरान पीड़ितों और गवाहों की यात्रा और जरूरतों का खर्च सरकार की तरफ से मुहैया कराया जाता है
- इस एक्ट का एक और प्रावधान यह है कि उन क्षेत्रों का पता लगाया जाए जहां यह अत्याचार ज्यादा हो रहे हैं और उन्हें कैसा रोका जा सकता है इस पर अमल किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने किया था यह बदलाव
एससी/एसटी एक्ट बदलाव करते हुए 20 मार्च 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने शिकायत मिलने पर तुरंत मुकदमा भी दर्ज नहीं करने का आदेश दिया था। कोर्ट ने कहा था कि शिकायत मिलने के स्थिति में शुरुआती जांच डीएसपी स्तर के पुलिस अफसर द्वारा की जाएगी। जांच हर हाल में 7 दिन के अंदर होनी चाहिए। कोर्ट ने ऐसा इसलिए किया था ताकि शुरुआती जांच के बाद डीएसपी यह पता लगा सके कि किसी तरीके से झूठे आरोप लगाकर फंसाया तो नहीं जा रहा। कोर्ट ने बड़े पैमाने पर इस कानून के गलत इस्तेमाल किए जाने की बात मानी थी। कोर्ट ने यह भी कहा था कि सरकारी कर्मचारियों की गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अथॉरिटी की इजाजत के बाद ही हो सकती है। कोर्ट ने इन्हें अग्रिम जमानत के लिए आवेदन के अधिकार भी दे दिए थे।
कोर्ट के फैसले का विरोध
एससी/एसटी कानून में बदलाव के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध पूरे देश में हुआ। 1 अप्रैल 2018 को देशभर में कई संगठनों ने बंद बुलाया था। जगह-जगह आगजनी की गई। इस विरोध प्रदर्शन में कई लोगों की जान भी गई थी। सार्वजनिक सम्पत्ति में आग लगा दी गई थी। लोगों ने कोर्ट और सरकार के खिलाफ जमकर नारेबाजी की। संगठनों की मांग थी कि एससी/एसटी एक्ट 1989 में संशोधन को वापस लेकर इसे पहले की तरह लागू किया जाए। हालांकि सवर्ण समाज कोर्ट के फैसले से खुश था।
सरकार का पक्ष
देशभर में हुए विरोध प्रदर्शन के बाद केंद्र सरकार दबाव में थी। सरकार ने कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल की थी। सरकार में शामिल कई मंत्री और गठबंधन दलों के सदस्यों ने भी इस फैसले का विरोध किया था। दबाव में आकर सरकार पहले अध्यादेश लेकर आई। बाद में सरकार की ओर से मॉनसून सत्र में SC/ST संशोधन विधेयक पेश किया। कांग्रेस समेत ज़्यादातर विपक्षी दलों ने इस बिल का समर्थन किया था। संशोधित बिल में सरकार इस तरह के अपराध में FIR दर्ज करने के प्रावधान को वापस लेकर आई थी। सरकार ने माना कि केस दर्ज करने से पहले जांच जरूरी नहीं और ना ही गिरफ्तारी से पहले किसी की इजाजत लेनी होगी। अग्रिम जमानत का भी प्रावधान खत्म हो गया। मोदी सरकार की दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला बदल लिया। कोर्ट ने सरकारी कर्मचारी और सामान्य नागरिक को गिरफ्तार करने से पहले अनुमति लेने की जरूरत को खत्म कर दिया।
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